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उच्च शिक्षा के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों की पहल

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गिरीश्वर मिश्र

आकार की दृष्टि से आज भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है जिसमें लगभग 44 हजार उच्चशिक्षा के संस्थानों और देशी संस्थाओं के साथ एक विशाल व्यवस्था खड़ी हो चुकी है। इनमें 1115 विश्वविद्यालय या उसी तरह के संस्थान हैं। भारत देश की जनता की औसत आयु 29 वर्ष के करीब आंकी गई है। इस दृष्टि से यह एक युवा देश है और वह एक गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा का हकदार है।

उच्च शिक्षा में नामांकन बढ़ाना कई कारणों से देश की आवश्यक आवश्यकता बन चुका है। तभी युवा देश होने का लाभ या डेमोग्राफ़िक डिवीडेंड मिल सकेगा। इस संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि उच्च शिक्षा का भारतीय अतीत नि:संदेह रूप से अत्यंत गौरवशाली रहा है। यहां के विद्याकेंद्र शिक्षण, शोध और अध्यापन की दृष्टि से विश्वस्तरीय मानदंड वाले थे और विश्व गुरु का दर्जा कोई कपोल कल्पना नहीं थी। यहां शिक्षा में नवाचार भी होते थे। इन उत्कृष्ट संस्थानों की गुणवत्ता से आकर्षित हो कर अन्य देशों से भी विद्यार्थी आते थे। नालंदा और तक्षशिला ऐसे ही विश्वविश्रुत शिक्षाकेंद्र थे जहां अनेक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यह व्यवस्था निश्चित रूप से बहुशास्त्रीय और अंतर अनुशासनिक (मल्टी और इंटरडिसिप्लिनरी) शिक्षा थी जिसकी आजकल बड़ी गूंज है। कालांतर में अनेक दुष्प्रभावों के बीच यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई। उसके पुरावशेष आज भी बचे हैं और ज्ञान की थाती को संजोती-दर्शाती विभिन्न विषयों की अथाह ग्रंथ-राशि भी शेष है।

उल्लेखनीय है कि यह ज्ञान-परम्परा समग्रता पर जोर देती थी। भौतिक-सामाजिक ज्ञान के साथ ही पारमार्थिक ज्ञान यानी परा और अपरा विद्या, दोनों पर जोर देती थी। समग्र शिक्षा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के लिए तैयार करती थी। निकट अतीत में अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीति के तहत भारतीय शिक्षा ब्रिटेन की नकल करते हुए नई चाल में ढल चली। उसने भारतीय शिक्षा का हाशियाकरण किया और शिक्षा के पैमाने बदल डाले। अपनी और दूसरों की मुक्ति और कल्याण के बदले अर्थकरी शिक्षा मुख्य हो गई। वित्त ही मुख्य होता गया और उसी के जाल में हम फँसते गए। स्थिति बिगड़ती गई। स्वतंत्र भारत में भी ढांचा वही रहा और शिक्षा को नीति में वह वरीयता न मिल सकी जिसकी उसे दरकार थी। शिक्षा के संचालन में समझौते दर समझौते होते गए और ढांचा मूलतः विदशी जिसे सार्वभौमिक करार दिया गया। ऐसे में शिक्षा की गुणवत्ता तथा अपने देश के लिए प्रासंगिकता घटती गई। आज विद्यार्थियों और अध्यापकों के आचरण को लेकर कई प्रश्न खड़े हैं। अयोग्य डिग्रीधारी या शिक्षित बेरोजगार बढ़ने लगे। शिक्षा के परिसर प्रदूषित होने लगे। आज की घोर वास्तविकता यही है कि समकालीन उच्च शिक्षा अनेक दुविधाओं और अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। वह ग़ुणवत्ता, समता, समावेशिकता, सांस्कृतिक दृष्टि से प्रासंगिकता और उपलब्धता की विकराल चुनौतियों से जूझ रही है। ज्ञान कहीं का हो आदरणीय है पर यदि वह हमारे अस्तित्व को ख़तरे में डाले तो विचार करने की जरूरत पड़ती है।

अब खबर गर्म है कि विदेशी विश्वविद्यालय के उपग्रह भारत में ज्ञान का प्रकाश फैलाएंगे। वैसे आज भी भारत की उच्च शिक्षा की धुरी मूलतः अमेरिका और ब्रिटेन में ही है। ज्ञान की विषयवस्तु, परिधि, प्रकार और प्रक्रिया में वे बड़ी भूमिका निभाते आ रहे हैं पर वह बहुतों को नाकाफी लगती है। परिणाम यह होता है कि हजारों की संख्या में विद्यार्थी उच्च शिक्षा पाने के लिए अकेले अमेरिका जाते हैं। अब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में पहुंच कर परिसर खोल रहे हैं। विगत वर्षों में अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधिमंडल भारत में आ चुके हैं और इस देश में शिक्षाकेंद्र शुरू करने में अपनी रुचि व्यक्त कर चुके हैं। अनेक भारतीय विश्वविद्यालय भी विदेशी संस्थाओं के साथ कई तरह से सम्पर्क साध रहे हैं। इसके नियमन की मुकम्मल व्यवस्था अभी ठीक से कार्यान्वित नहीं हो सकी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कुछ नियम बना रहा है और दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। इसी तरह अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद भी कारवाई कर रही है। इस बीच देश में उच्च शिक्षा में साएर्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी काम हुई है और निजी शिक्षा संस्थानों की बाढ़ सी आ गई है और सैकड़ों से ज्यादा डीम्ड विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ चुके हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो नवाचार, नई विधियों और नए पाठ्यकर्मों में भी रुचि ले रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए आवश्यक नियम क़ानून बानाने होंगे और एक पारदर्शी व्यवस्था भी लानी होगी तभी शिक्षा में उत्कृष्टता का सपना पूरा हो सकेगा।

आमतौर पर विदेश की शिक्षा देशी शिक्षा के लिए पूरक के रूप में ली जाती रही है। वैसे भी भारत में आईआईटी और आईआईएम जैसे अच्छे शिक्षा संस्थानों में सीमित अवसर होने के कारण विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाने के इच्छुक अभ्यर्थियों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा चलती है। चूंकि अवसर सीमित होते हैं। बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली विद्यार्थी भी शिक्षा का अवसर नहीं पा पाते। आज युवा वर्ग की जनसंख्या बढ़ने के साथ उच्व्च शिक्षा की संस्थाओं पर प्रवेश देने के लिए दबाव तेजी से बढ़ रहा है पर संसाधनों की कमी से प्रवेश के लिए संस्थानों में सीटें बढ़ाना मुश्किल हो रहा है। भारतीय पाठ्यक्रम अक़्सर विषयवस्तु की दृष्टि से तो समृद्ध होते हैं परंतु अनुभव की दृष्टि से सीमित होते हैं और उनके तथा उदयोग की जरूरतों के बीच बड़ी खाई बनी रहती है। इससे विद्यार्थी के लिए भविष्य के कैरियर में बाधा पड़ती है।

अमेरिकी और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों ने भारत में परिसर खोलने में खासी रुचि दिखाई है। भारतीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा ने भी इस दिशा में पहल की है। अनेक देशों के शैक्षिक मेले भी भारत में लग रहे हैं। अच्छे विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रामाणिक पाठ्यक्रमों का देश में उपलब्ध होना उच्च शिक्षा के क्षितिज को विस्तृत करने वाला अवसर सिद्ध हो सकता है। करियर की तैयारी और उद्योग धंधों के लिए मुफीद पाठ्यक्रम चलाने के लिए विदेशी संस्थान प्रसिद्ध हैं। शिक्षा को समकालीन आवश्यकताओं से जोड़ने की जरूरत सभी अनुभव कर रहे हैं। वैश्वीकरण से शिक्षा में विविधता आएगी। दूसरी ओर विदेश जा कर पढ़ाई करने में जो अच्छी खासी रकम खर्च होती है उसमें भी बचत होगी। पर यह तथ्य भी नकारा नहीं जा सकता कि विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत की ओर कूच करने के अभियान के मूल में बाजार प्रेरित मांग ही मुख्य है। यह कदम उच्च शिक्षा के तेजी से हो रहे व्यापारीकरण की प्रवृति को और प्रबल करने वाला होगा।

सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की सीमाओं के चलते निजी संस्थानों के पौ बारह हैं। वे विदेशी विश्वविद्यालयों से जुड़कर विदेशी डिग्री दिलाने में आगे हैं जिनकी बदौलत उनकी बाजार में पूछ भी होती है। इस तरह उच्च शिक्षा एक बिकाऊ माल होता जा रहा है। आज प्रचलित विदेशी पाठ्यक़्रमों में व्यावसायिक और तकनीकी के क्षेत्रों की प्रमुखता है। उन्हीं को लेकर आपसी सहयोग अधिक दिखता है। दिल्ली में व्यापार प्रबंधन और महाराष्ट्र में होटल प्रबंधन के क्षेत्रों में विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग विशेष रूप से लोकप्रिय हो रहे हैं। ट्विनिंग प्रोग्राम अधिक सफल हैं जिनमें एक विद्यार्थी को देश और विदेश दोनों ही जगह पढ़ाई करनी होती है। यह कम खर्चीला भी होता है। ब्रैंड नाम वाले बड़े विश्वविद्यालय के साथ जुड़ना भारतीय संस्था के लिए आकर्षक है। परीक्षा और मूल्यांकन की लचीली व्यवस्था और नौकरी की अधिक संभावना इन विदेशी डिग्रियों को मूल्यवान बनाते हैं। आज ज्ञानकर्मियों की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता या आवाजाही के कारण विदेशी डिग्री की मांग तेजी से बढ़ रही है। ताजे आंकड़े बताते हैं कि तेरह लाख से कुछ ज्यादे भारतीय छात्र विदेश में गए और लगभग पचास हजार विदेशी छात्र भारत आए।

नई शिक्षा नीति शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को एक महत्वपूर्ण लक्ष्य स्वीकार करती है। पढ़ने के लिए क्रेडिट व्यवस्था के तहत विदेशी अध्ययन के आन लाइन पाठ्यक्रम को भी मान्यता दी जाएगी। प्रत्येक विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों की देखरेख के लिए अधिकारी सुनिश्चित करेंगे तथा प्राचीन छात्र संगठन भी स्थापित होंगे। अकादमिक सहयोग के लिए ट्विनिंग, ज्वाईंट और डुएल डिग्री की संभावनाओं को हकीकत में लागू करने, प्रतिष्ठित विद्वानों को बुलाने, अकादमिक नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण, विदेशी छात्रों को पूर्वनिश्चित संख्या से आगे जाकर प्रवेश देने का प्रावधान कुछ ऐसे उपाय अपनाने की बात है जो भारतीय शिक्षा को वैश्विक रूप दे सकेंगे।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण थोड़े से चुनिंदे लोगों के लिए ही है। नई शिक्षा नीति कहती है कि चुने हुए शीर्ष विश्वविद्यालयों में से कुछ को भारत में परिसर शुरू करने अवसर मिलेगा। भारतीय उच्च शिक्षा कई तरह से अंतरराष्ट्रीय बनाने का प्रावधान है। वैश्विक स्तर का अनुभव वह भी किफ़ायती दर पर शिक्षा को वैश्विक रूप से प्रासंगिक बना सकेगा बशर्ते छात्रों और अध्यापकों के आदान-प्रदान के अवसर बढ़ाने, शोध और अध्यापन में आपसी सहयोग का अवसर बनाने और आधार संरचना सुदृढ़ करने की ईमानदार कोशिश की जाए। विदेशी ज्ञान उपग्रहों की रोशनी मिले इस हेतु देश के नीति निर्माताओं से इन अपेक्षाओं से जुड़े प्रश्नों का उत्तर देना होगा और उच्च शिक्षा के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा। वैश्विक स्तर पर भारतीय शिक्षा की साख बढ़ाने के लिए नियुक्ति में मेरिट चाहिए, एक्रेडिटेशन की प्रक्रिया प्रामाणिक होनी चाहिए, अनुसंधान की संस्कृति का विकास करना होगा तभी उद्यमिता और आर्थिक विकास के लिए शिक्षा का लाभ मिल सकेगा। उपयुक्त वातावरण और स्वायत्तता आवश्यक है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / वीरेन्द्र सिंह

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